गजानन्द कश्यप रायपुर
गरियाबंद जिले के देवभोग में स्थित ऐतिहासिक जगन्नाथ मंदिर में भी रविवार को रथ यात्रा निकाली गई। देवभोग में जगन्नाथ मंदिर का निर्माण 1854 ईस्वी में शुरू हुआ था। मंदिर को पूरा करने में 47 साल लग गए थे। 1901 में पहली रथ यात्रा नि
काली गई थी। मूर्ति पुरी से आई थी, इसलिए इसके कलेवर से लेकर ज्यादातर रस्में पुरी के तर्ज पर ही होती हैं। इलाके में पहले देवभोग में ही रथयात्रा निकाली जाती थी, प्रचलन बढ़ा, तो अब कई गांवों में रथ यात्रा निकाली जाती है। मंदिर निर्माण इलाके के 84 गांव के लोगों ने मिलकर किया था। निर्माण पूरा होने के बाद मंदिर संचालन में भी सबकी सहभागिता की शपथ ली गई थी, तब से लेकर आज तक ग्रामीण अपने अनाज उत्पादन का कुछ हिस्सा लगान के रूप में मंदिर पुजारी के पास जमा कराते हैं।
धान के अलावा दलहन, तिलहन भी लगान के रूप में भेंट किया जाता है । देवभोग में भगवान जगन्नाथ की मूर्ति को दधि ब्राह्मण के रूप में एकल मूर्ति के रूप में जाना जाता है। इसमें शक्ति स्थापित है। जैसे पुरी में कलेवर होता है, तो मूर्ति जला दी जाती है। इसमें शक्ति स्थापित होने के कारण हर 12 साल में कलेवर तो किया जाता है, लेकिन इस दौरान इन्हें जलाया नहीं जाता, मगर रूपांतरण किया जाता है। रूपांतरण के दौरान मूंग को जलाकर, घी और मूंग का पेस्ट बनाकर, नए कपड़े में धूप, मूंग और घी का पेस्ट बगाकर प्रभु के पूरे शरीर पर इस लेप को लगाया जाता है और कपड़े को लपेटा जाता है। फिर चित्रण किया जाता है। इतिहासकारों के मुताबिक, 18वीं शताब्दी में इस जगह का नाम कुसुम भोग था, यहां मिलने वाली लगान का कुछ हिस्सा पुरी के भगवान को लगने वाले भोग के रूप में भेजा जाने लगा, तब से इस जगह का नाम देवभोग पड़ा।
करीब 123 साल पहले कुसुम भोग का नाम बदलकर देवभोग हुआ था।देवभोग के जगन्नाथ मंदिर समिति के अध्यक्ष देवेंद्र बेहेरा के मुताबिक, वर्ष 1854 में क्षेत्र के पूरे 84 गांव के गोहटिया ने संकल्प लिया था कि जगन्नाथ मंदिर के रखरखाव और भोग के लिए अनाज, तिलहन और दलहन लगान के रूप में देंगे। आज भी सभी उस संकल्प का पालन कर रहे हैं। यहां से वसूले गए लगान की कुछ मात्रा को पुरी भेजा जाता है। इसके लिए 7 दिन पहले पुरी के पंडा द्वारा भेजा गया पुरी मंदिर का एक व्यक्ति देवभोग पहुंचता है। वह व्यक्ति मिले हुए लगान का एक चौथाई हिस्सा लेकर निकलता है। यहां से पहुंचाया गया भोग भगवान जगन्नाथ को चढ़ाया जाता है ।इस मंदिर के निर्माण में सीमेंट और छड़ का इस्तेमाल नहीं किया गया है। सीमेंट और छड़ की जगह इसे बनाने में बेल, चिवड़ा, बबूल और देशी सामाग्रियों का इस्तेमाल कर इमारत को जोड़ा गया है। बताया जाता है कि तत्कालीन जमींदार भगवानो बेहेरा ने साढ़े 36 डिसमिल जमीन मंदिर निर्माण के लिए दान करने की घोषणा की, लेकिन इस बीच उनकी मौत हो गई। इस दौरान भगवानो बेहेरा स्वर्ग सिधार गए। इसके बाद रामचंद्र बेहेरा ने मंदिर निर्माण की कमान संभाली। आधे निर्माण तक उनकी भी मौत हो गई, जिसके बाद बलभद्र बेहेरा ने मंदिर को वर्ष 1901 में पूरा करवाया ।













